Wednesday, June 4, 2008

हमें 'एड्स न्यूज़' फ़िल्म जैसी स्टाइल से दिखाना होगा:शैलेश

आज हम ये जानते है कि एक-दुसरे से बात करने को कितना बुरा माना जाता है। ऐसी स्थिति में समस्या यह आती है कि इसकी रिपोर्टिंग कैसे की जाय और इसके प्रिवेंसन को कैसे रिपार्ट किया जा सकता है आज हमारा समाज इस पर बात करने में भी कतराता है। जहाँ इसकी शिक्षा के नाम पर भी विवाद होना शुरू हो जाता है आप अगर इसको समाज में सेक्स एज्युकेसन कहेंग तो बात नहीं बनने वाली नहीं है।
हमारे सामने रिपोर्टिंग के दौरान भी वहीं समस्या ही आती है जो सेक्स एज्युकेसन के दौरान आने वाली होती है मीडिया से जुड़े होने के नाते हमे ये प्रयास करना चाहिए कि हम इसको इसे लिखे,स्टोरी मैं दिखाएँ की लोग उसे देखने पर मजबूर हो जाए हमारे लिए एक चुनौती ये भी है कि हम सेक्स एज्युकेसन एक बार ही देने जाते है मगर मीडिया से जुड़े होने के खातिर आपको उसे कई बार दिखाना है, बार-बार दिखाना है और पत्रिकाओ को भी उसे हर बार एक नए ढंग से लिखना अपने आप में बड़ी चुनौती है जो वास्तव रोचक भी होना चाहिए. हमे हर रोज ये तरीके ढूँढ़ने होते है कि कैसे एड्स को उस आदमी को बताया जाय जिसकी इसे जानने मैं कोई दिलचस्पी नहीं है. ऐसे में क्या किया जाय कि उसे देखे और ज्यादा उसके बरे मैं जानना चाहे आम आदमी अक्सर अपनी निगाहें महानायकों पर टिकाए रहता है उसे ही देखना चाहता है पढ़ना चाहता है क्योकि उसके साथ उसके सपने जुड़े होते है वहीं दूसरी तरफ़ एच आई वी से पीड़ित कोई महानायक नहीं होता है तो फ़िर आप उसे कैसे दिखायंगे मीडिया मैं बस आज हाइवे के किनारे और रोड पर चलने वाले ड्राइवरों की समस्या को ही फ्लेश किया जा रहा है।
हमारे समाज में सेक्स वर्कर्स की मौजूदगी आज की बात नहीं है ये तो हमारे समाज में आदि कल से चली आ रही परम्परा है पहले जो काम देवदासियाँ करती थी वे ही अब सेक्स वर्कर कर रही है हमारे पास एड्स पर इसके अलावा दुसरे दिन दिकहने के लिए ने स्टोरी क्या है यहं हमारे क्म्युनिकेसन के स्किल का बा रोल होता है अखबर के पत्रकार से लेकर इलेक्ट्रोनिक चैनल जैसे मीडिया के लिए भी कि कैसे एड्स की विराटता को उसी परिद्रस्य के साथ पेश किया जा सके. यहाँ विराटता से आशय एड्स की महानता से नहीं वरन उसके व्यापक दुष्प्रभाव से है एक पत्रकार को चाहिए कि वह एड्स की उस भयावहता को उसके मूल स्वरूप में देखकर लोगो को भी दिखा सके और यही अपने आप में बिग स्टोरी होगी किसी प्रिंट या इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार के लिए भी.हमे एड्स को अच्छे से रिपोर्ट करने के लिए सूत्र तलाशने होंगे जो एक दुसरे से दूर दूर बिखरे हुए है और उन्हें लोगों को बतातना होगा और आंकडों से कुछ नहीं होता आपको मुद्दे को भावात्मक मोड़ देना ही होगा क्योंकि लोगों को आंकडों पर तरस नहीं आता है इसी लिए अन्कदों पर अक्सर लोगों का ध्यान जाता ही नहीं है लोगों को एड्स के विषय में बताने के दो तरीके है पहला उनको डराकर या फ़िर मानवीय त्रासदी के भावनात्मक पहलू को सामने लाकर. एड्स की खबरों का हाल क्या होता है ये तब पता चलता है जब आपकी इस न्यूज़ पर आपका चैनल बदला दिया जाता है एक मिडिया संस्थान होने के नाते हम भी एड्स पर काम करना चाहते है ये महान कार्य करना चाहते है मगर इस महान कार्य को कई देखे तो ना, और जब कोई इस काम को कई देखें नहीं तो फ़िर चैनल होने के नाते में उसे क्यों दिखाऊँ? असल में बात ये नहीं है कि कोई एड्स पर कुछ भी देखना ही नहीं चाहता है सच तो यही है कि हमें असल में एड्स को दिखाना ही नहीं आता है. एड्स के समबन्ध में हमारी कम्युनिकेसन स्किल्स ही सबसे बड़ी समस्या है और यही आने वाले पत्रकारों के साथ साथ उन सभी तमाम भावी पत्रकारों के लिए भी चुनौती है कि एड्स पर किस प्रकार से लिखा जाय जिसे लोग पढे और अपने जीवन में उतारने पर राजी हो जाए।
उन्होंने अपने एक अनुभव के अधर पर बताया कि उनके चैनल के एक व्यक्ति को पिछले दो सालों से एड्स पर डाक्यूमेट्री पर पुरस्कार मिल रहा है मगर उसमे क्या है ये उनको याद नहीं है कि उसमे क्या है मगर वहीं उनके चैनल के एक रिपोर्टर के द्वारा आजमगढ़ के एक सामान्य सी लगने वाली स्टोरी अब तक मानस पटल पर छाप बांये हुए है हम न मर्यादाओं से बाहर निकल सकते है मगर हम इसके विषय में मौन रखना उचित नहीं समझते है और ऐसा मानते है कि हम उसे समाज के सामने रखने से बाज़ भी नहीं आयेंगे तो फ़िर इसके लिए हमें ही अपना तरीका विकसित करना होगा जो अपने अन्दर से आने की वजह से मौलिकता लए हुए होगा। आज भी एड्स जैसे गंभीर विषय पर कह्बरों के साथ साथ अच्छे रिपोर्टरों की कमी है जो उन बेबस लोगों को अलग नजरिये से देखा सके और उनकी पीड़ा को अन्दर से महसूस कर सके। हमे कोई 'फिल्मी' तरीका इजाद करना होगा जैसे हर फ़िल्म में लगभग एक सी कहानी होती है कलाकारों का रोल एक सा होता है फ़िर भी न सिर्फ़ फिल्में बनती है बल्कि कई सारी फिल्में चलती भी है और सुपर हीट भी हो जाती है ठीक इसी तरह एड्स पर भी हमें कोई युक्ति इजाद करनी होगी जिसे हर स्टोरी न सिर्फ़ देखी जाय वरन पसंद भी की जाए .
पिछले दिनों आज तक चैनल के एक्जीक्यूटिव एडिटर श्री शैलेश जी भोपाल के पलाश होटल में मध्य प्रदेश एड्स कंट्रोल सोसायटी के द्वारा मीडिया स्टूडेंट्स के लिए आयोजित एक कार्यशाला में आए थे. उन्होंने वहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों से रूबरू हुए और इसी दौरान मुझे भी उनसे इस सम्बन्ध में कुछ समझने का अवसर मिला यहाँ प्रस्तुत है उनके मूल भाषण के कुछ अंश . उम्मीद है कि आपको पसंद आयेंगे . अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराये.

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