Friday, June 6, 2008

तोड़फोड़ पत्रकारों से चरित्र पर प्रभाव पड़ेगा

एक अन्य वक्ता ने बताया कि पत्रकारों को अपने अधिकारों के प्रति सजग होना, उनको जानना होगा। दूसरा अपने पाठकों की नीव में निष्ठा बनाये रखना होगा। तभी पत्रकारों को भी फायदा होगा। वरना इस तरह तोड़फोड़ करने की प्रवृति से पत्रकारों की साख पर प्रश्न चिह्न लगेगा और उनके व्याक्तित्व पर भी असर पड़ता है।

Thursday, June 5, 2008

मीडिया का यूज़ 'धंधे' ज़माने में तो नहीं

रविन्द्र दयाती ने अपने संक्षित अदबोधन मैं कहा कि हमे ये समझना होगा कि वास्तव में ये वार है क्या? कहीं ये पावर वार तो नहीं है? बाजारवाद पर हावी होने के लिए, मीडिया के जरिये अपने दुसरे धंधों को स्थापित करने के लिए अपना दूसरा मार्केट ज़माने का माध्यम तो नहीं है ये मीडिया युद्ध के जैसा हालत. हाँ अगर पाठकों के नजरिये से देखें तो ये परीक्षा का दौर है जहाँ दो अलग अलग समाचार पत्र आपके सामने है अब आपको सोचना है कि आप किसे ज्यादा नंबर देंगे या कम देंगे यहाँ सब कुछ है तो पाठक के हाथ मैं न यहाँ कोपी तो उसे ही जाचनी है. फ़िर भी अगर आचार संहिता के आधार पर देखें तो पहली बार एक दुसरे के नाम पर सीधा आक्ष्प लगाया जा रहा है पहली बार नाम लेकर कीचड उछला जा रहा है जिसे अच्छा नहीं माना जा सकता है

पाठकों के प्रति समर्पित होने से सार्थक होंगी बहसें

श्री कुशवाहा जी ने कहा कि अभी हाल ही में मई का महीना ख़त्म हुआ है एक सौ पचास साल पहले स्वतंत्रता का पहला युद्ध लड़ा गया फ़िर उन्नीस सौ सैतालिस मैं दूसरा तथा उन्नीस सौ पिचहत्तर में तीसरा युद्ध लगा गया और अब हमारे यहाँ मीडिया का यद्ध लड़ा जा रहा है अभी पत्रकार जिन हाथों में खेल रहा है और जहाँ वह काम कर रह है उसका मौहोल सही नहीं है हमारा लोकतंत्र बिना पारदर्शिता के नहीं चल सकता है मगर आज भी हमारे समाज में पारदर्शिता नहीं आई है आज अखबारों में लिखा क्या जाता है इसी का नतीजा है कि हम अखबार सिर्फ़ पन्द्रह मिनिट में समाप्त हो जाता है जहाँ प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के सामने एक दिक्कत ये भी है कि उसमे इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तरह मूड्स नहीं आता है और इतनी बढाती प्रतियोगिता का नतीजा यहीं होना है कि पत्रकारों का फायदा होगा तो दूसरी तरफ़ उनका शोषण भी तो होगा जब तक अखबार अपने पाठकों के प्रति समर्पित नहीं होंगे ऐसी वार्ताओं का कोई फायदा नहीं होने वाला है

गांधीजी के हिंद स्वराज को मध्यम वर्ग ने नहीं स्वीकारा


पंद्रहवी राजबहादूर पाठक स्मृति व्याख्यानमाला गांधीजी की कृति हिंद स्वराज के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर भोपाल के न्यू मार्केट स्थित अपेक्स बैंक के समन्वय परिसर में आयोजित की गई। इस कार्यक्रम अपने शहर भोपाल के कई बुद्धिजीवियों के अलावा बाहर से भी कई लोगों ने शिरकत कीं। इस विचारपूर्ण व्याख्यानमाला के प्रमुख वक्ताओं में प्रभाष जोशी, वागीश शुक्ल और नन्द किशोर आचार्य ने भागीदारी की।
जाने-माने विचारक और लेखक प्रभाष जोशी को कौन नहीं जनता है जिनका जन्म गाँधी की जन्मभूमि गुजरात में हुआ। उन्होंने कुछ समय भोपाल में भी बिताया है उन्होंने यहाँ उन्नीस सौ छियासठ के बाद दो साल तक यहीं भोपाल की पत्रकारिता से जुड़े रहे है आप आजकल गांधीजी के हिंद स्वराज की परिकल्पा के न होने के कारणों को ढूंढ रहे है यानि कि हिंद स्वराज क्यों नहीं हुआ इस पर कार्य कर रहे है। गाँधी जी ने उन्न्सिस नौ से लेकर अड़तालीस तक हिंद स्वराज पर जोर दिया था मगर उसको लोगों के द्वारा स्वीकार नहीं किया जा सका।
उन्होंने पुस्तक के समबन्ध में चर्चा करते हुए कहा कि गांधीजी ने लिखा था कि यह पुस्तक में उन भारतीयों के लिए लिख रहा हूँ जो पश्चिमी सभ्यता और हिंसा में अंध विश्वास रखते है यह अंगरेजी हिंद स्वराज की भूमिका का अंश है , जो अन्थोनी पाल ने की थी।
उन्होंने यह भी कहा था पश्चिमी संस्कृति ब्रिटेन के लिए भी हानिकारक है तब भारत के लिए कितनी हानिकारक होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। इसको लेकर गांधीजी चिंतित थे.
कार्यक्रम का संचालन ध्रुव शुक्ल जी ने किया।

Wednesday, June 4, 2008

कम हो रहे है मीडिया घराने

एक अन्य वक्ता ने अपने मत में कहा कि इस तरह के उठापटक से मिडिया का माहौल ख़राब हो रहा है पर्यावरण का विनाश हो रहा है अब मिडिया घराने घट रहे है पहले चोबिस घराने थे जो आज के दिन तेरह ही रहे है इसका कारन पत्रकारिता की विश्वसनीयता की कसौटी पर है उन्नीस सौ इक्रयासी में एक न्यूज़ चैनल है जो आज तेरह हो गए है ब्राडबैंड और इंटरनेट से दायरा बढ़ रहा है इडिया घराने कई ज्यादा प्रयास कर रहे है प्रिंट मिडिया की स्थिति टीवी से ज्यादा प्रभावित हो रही है मगर दूसरी तरफ़ अखबारों क प्रति लोगों में रुचि बढ़ी है बड़े अखबार छोटे अखबारों को प्रभावित कर रहे है और उनकी दशा डर रोज बिगड़ती जा रही है ऐसी स्थिति में ये समाज का दायित्व है कि वे उन अखबारों को प्रोत्सहीत करें.

हमें 'एड्स न्यूज़' फ़िल्म जैसी स्टाइल से दिखाना होगा:शैलेश

आज हम ये जानते है कि एक-दुसरे से बात करने को कितना बुरा माना जाता है। ऐसी स्थिति में समस्या यह आती है कि इसकी रिपोर्टिंग कैसे की जाय और इसके प्रिवेंसन को कैसे रिपार्ट किया जा सकता है आज हमारा समाज इस पर बात करने में भी कतराता है। जहाँ इसकी शिक्षा के नाम पर भी विवाद होना शुरू हो जाता है आप अगर इसको समाज में सेक्स एज्युकेसन कहेंग तो बात नहीं बनने वाली नहीं है।
हमारे सामने रिपोर्टिंग के दौरान भी वहीं समस्या ही आती है जो सेक्स एज्युकेसन के दौरान आने वाली होती है मीडिया से जुड़े होने के नाते हमे ये प्रयास करना चाहिए कि हम इसको इसे लिखे,स्टोरी मैं दिखाएँ की लोग उसे देखने पर मजबूर हो जाए हमारे लिए एक चुनौती ये भी है कि हम सेक्स एज्युकेसन एक बार ही देने जाते है मगर मीडिया से जुड़े होने के खातिर आपको उसे कई बार दिखाना है, बार-बार दिखाना है और पत्रिकाओ को भी उसे हर बार एक नए ढंग से लिखना अपने आप में बड़ी चुनौती है जो वास्तव रोचक भी होना चाहिए. हमे हर रोज ये तरीके ढूँढ़ने होते है कि कैसे एड्स को उस आदमी को बताया जाय जिसकी इसे जानने मैं कोई दिलचस्पी नहीं है. ऐसे में क्या किया जाय कि उसे देखे और ज्यादा उसके बरे मैं जानना चाहे आम आदमी अक्सर अपनी निगाहें महानायकों पर टिकाए रहता है उसे ही देखना चाहता है पढ़ना चाहता है क्योकि उसके साथ उसके सपने जुड़े होते है वहीं दूसरी तरफ़ एच आई वी से पीड़ित कोई महानायक नहीं होता है तो फ़िर आप उसे कैसे दिखायंगे मीडिया मैं बस आज हाइवे के किनारे और रोड पर चलने वाले ड्राइवरों की समस्या को ही फ्लेश किया जा रहा है।
हमारे समाज में सेक्स वर्कर्स की मौजूदगी आज की बात नहीं है ये तो हमारे समाज में आदि कल से चली आ रही परम्परा है पहले जो काम देवदासियाँ करती थी वे ही अब सेक्स वर्कर कर रही है हमारे पास एड्स पर इसके अलावा दुसरे दिन दिकहने के लिए ने स्टोरी क्या है यहं हमारे क्म्युनिकेसन के स्किल का बा रोल होता है अखबर के पत्रकार से लेकर इलेक्ट्रोनिक चैनल जैसे मीडिया के लिए भी कि कैसे एड्स की विराटता को उसी परिद्रस्य के साथ पेश किया जा सके. यहाँ विराटता से आशय एड्स की महानता से नहीं वरन उसके व्यापक दुष्प्रभाव से है एक पत्रकार को चाहिए कि वह एड्स की उस भयावहता को उसके मूल स्वरूप में देखकर लोगो को भी दिखा सके और यही अपने आप में बिग स्टोरी होगी किसी प्रिंट या इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार के लिए भी.हमे एड्स को अच्छे से रिपोर्ट करने के लिए सूत्र तलाशने होंगे जो एक दुसरे से दूर दूर बिखरे हुए है और उन्हें लोगों को बतातना होगा और आंकडों से कुछ नहीं होता आपको मुद्दे को भावात्मक मोड़ देना ही होगा क्योंकि लोगों को आंकडों पर तरस नहीं आता है इसी लिए अन्कदों पर अक्सर लोगों का ध्यान जाता ही नहीं है लोगों को एड्स के विषय में बताने के दो तरीके है पहला उनको डराकर या फ़िर मानवीय त्रासदी के भावनात्मक पहलू को सामने लाकर. एड्स की खबरों का हाल क्या होता है ये तब पता चलता है जब आपकी इस न्यूज़ पर आपका चैनल बदला दिया जाता है एक मिडिया संस्थान होने के नाते हम भी एड्स पर काम करना चाहते है ये महान कार्य करना चाहते है मगर इस महान कार्य को कई देखे तो ना, और जब कोई इस काम को कई देखें नहीं तो फ़िर चैनल होने के नाते में उसे क्यों दिखाऊँ? असल में बात ये नहीं है कि कोई एड्स पर कुछ भी देखना ही नहीं चाहता है सच तो यही है कि हमें असल में एड्स को दिखाना ही नहीं आता है. एड्स के समबन्ध में हमारी कम्युनिकेसन स्किल्स ही सबसे बड़ी समस्या है और यही आने वाले पत्रकारों के साथ साथ उन सभी तमाम भावी पत्रकारों के लिए भी चुनौती है कि एड्स पर किस प्रकार से लिखा जाय जिसे लोग पढे और अपने जीवन में उतारने पर राजी हो जाए।
उन्होंने अपने एक अनुभव के अधर पर बताया कि उनके चैनल के एक व्यक्ति को पिछले दो सालों से एड्स पर डाक्यूमेट्री पर पुरस्कार मिल रहा है मगर उसमे क्या है ये उनको याद नहीं है कि उसमे क्या है मगर वहीं उनके चैनल के एक रिपोर्टर के द्वारा आजमगढ़ के एक सामान्य सी लगने वाली स्टोरी अब तक मानस पटल पर छाप बांये हुए है हम न मर्यादाओं से बाहर निकल सकते है मगर हम इसके विषय में मौन रखना उचित नहीं समझते है और ऐसा मानते है कि हम उसे समाज के सामने रखने से बाज़ भी नहीं आयेंगे तो फ़िर इसके लिए हमें ही अपना तरीका विकसित करना होगा जो अपने अन्दर से आने की वजह से मौलिकता लए हुए होगा। आज भी एड्स जैसे गंभीर विषय पर कह्बरों के साथ साथ अच्छे रिपोर्टरों की कमी है जो उन बेबस लोगों को अलग नजरिये से देखा सके और उनकी पीड़ा को अन्दर से महसूस कर सके। हमे कोई 'फिल्मी' तरीका इजाद करना होगा जैसे हर फ़िल्म में लगभग एक सी कहानी होती है कलाकारों का रोल एक सा होता है फ़िर भी न सिर्फ़ फिल्में बनती है बल्कि कई सारी फिल्में चलती भी है और सुपर हीट भी हो जाती है ठीक इसी तरह एड्स पर भी हमें कोई युक्ति इजाद करनी होगी जिसे हर स्टोरी न सिर्फ़ देखी जाय वरन पसंद भी की जाए .
पिछले दिनों आज तक चैनल के एक्जीक्यूटिव एडिटर श्री शैलेश जी भोपाल के पलाश होटल में मध्य प्रदेश एड्स कंट्रोल सोसायटी के द्वारा मीडिया स्टूडेंट्स के लिए आयोजित एक कार्यशाला में आए थे. उन्होंने वहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों से रूबरू हुए और इसी दौरान मुझे भी उनसे इस सम्बन्ध में कुछ समझने का अवसर मिला यहाँ प्रस्तुत है उनके मूल भाषण के कुछ अंश . उम्मीद है कि आपको पसंद आयेंगे . अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराये.

Sunday, June 1, 2008

ये क्या हो रहा है ................

भोपाल में मीडिया किसके हित में विषयक गोष्ठी में अतिथि।
भोपाल
आज शहर के रविन्द्र भवन स्थित स्वराज भवन में मीडिया के मित्र के द्वारा एक गोलमेज संगोष्ठी का आयोजन किया गया। विषय था भोपाल में मीडिया वार किसके हित में ? इस गोलमेज परिचर्चा में भोपाल शहर के कई जाने-माने मीडिया कर्मी और मीडिया के विश्लेषकों ने भाग लिया।
कार्यक्रम का आरंभ युवा विचारों के साथ हुआ इस दौर में स्टार चैनल के भोपाल में विशेष संवाददाता बृजेश राजपूत ने कहा कि इन दिनों भोपाल के मीडिया के में बड़ी आग है वैसे तो भोपाल बड़ा ठंडा ठंडा कूलस्पॉट है होर्डिंग्स से लेकर सभी घरों तक इसकी तपीश है । नए अखबार आए है और कुछ नए आने वाले है इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी कई नए केमरों के टेग दिखाई देने लगे है अब पत्रकारों को बेहतर पेकेज मिल रहा है जिन लोगों से कुछ बन नही रहा था उनको मजा आरहा अब


इसके आगे के वक्ताओं के विचार कल क पोस्ट में पढे ...........